भाषाई विवादः संवैधानिक प्रश्न या राजनैतिक हथियार

भारत विविधताओं का देश है, धर्म, जाति, संस्कृति और विशेषकर भाषा के क्षेत्र में इसकी विशिष्ट पहचान है। संविधान के अनुसार, भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, जहाँ 22 भाषाओं को सविधान की अनुसूची सूची में शामिल किया गया है और सैकड़ों बोलियों प्रचलन में हैं, परंतु समय-समय पर भाषा को लेकर उपजने वाले विवाद यह प्रश्न खड़ा करते हैं कि ये विवाद संविधान से उपजे हैं या किसी राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित है?
भाषा के विषय में संवैधानिक प्रावधान क्या है?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक भाषा संबंधी विस्तृत प्रावधान किए गए हैं। अनुच्छेद 343 में स्पष्ट किया गया है कि संघ की राजभाषा हिंदी तथा लिपि देवनागरी होगी, लेकिन साथ ही अंग्रेजी के प्रयोग को भी एक निश्चित समय तक अनुमति दी गई। इसके अलावा राज्य अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को राजभाषा के रूप में अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं। यहीं अनुच्छेद 350A और 351 में अल्पसंख्यक भाषाओं की सुरक्षा और प्रचार-प्रसार की भी व्यवस्था की गई है। इसके बावजूद कई बार केंद्र और राज्यों के बीच भाषा को लेकर टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
देखा जाए तो हाल के वर्षों में महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और असम जैसे राज्यों में भाषा को लेकर हुए आंदोलनों और बयानों ने यह संकेत दिया है कि भाषा केवल संवेदनशील सांस्कृतिक विषय ही नहीं, बल्कि राजनीति का शाक्तिशाली औजार भी बन चुकी है। महाराष्ट्र में मराठी भाषा के वर्चस्व को लेकर गैर-मराठी लोगों के विरूद्ध आदोलन, तमिलनाडु में हिंदी थोपने का विरोध, असम में बंगाली भाषा को लेकर असतोष, ये सब घटनाएं संकेत करती हैं कि राजनीति किस तरह भाषा को पहचान की लड़ाई में बदल देती है।
सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने कई बार स्पष्ट किया है कि कोई भी भाषा राष्ट्र या राज्य की पहचान का अपमान नहीं कर सकती और सरकारों को भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषा को बढ़ावा देना संविधान की भावना के अनुरूप है परंतु किसी एक भाषा को जबरन थोपना उचित नहीं है।
भाषाएं संवाद का माध्यम हैं, उन्हें विवाद का हथियार बनाने का परिणाम कभी सकारात्मक नहीं हो सकते। फिलहाल महाराष्ट्र में हो रहे भाषाई विवाद के पीछे राजनीतिक कारण ही समझ आते हैं। भाषा का विवाद तब तक संवैधानिक बहस का विषय रहता है जब तक वह संविधान की सीमाओं और जनहित तक सीमित हो। लेकिन जब भाषा को राजनीतिक स्वार्थ, वोट बैंक या क्षेत्रीय प्रभुत्व के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, तब वह विवाद खतरनाक दिशा में बढ़ जाता है।
भारत की शक्ति उसकी ‘एकता में विविधता में है। भाषाओं को विभाजन का कारण नहीं बल्कि संवाद और संस्कृति का सेतु बनाया जाना चाहिए। यह तभी संभव है जब भाषा पर संवैधानिक दृष्टिकोण के साथ-साथ राजनैतिक परिपक्वता भी अपनाई जाए।